जरूरतें पूरी करते-करते हम कब भौतिकवादी लोगों की भीड़ में शामिल हो जाते हैं,
पता ही नही चलता।
और शुरू हो जाती है दूसरों से ज्यादा बड़ा भौतिकवादी बनने की होड़, जिसके लिए हमारे मन में दूसरों का हिस्सा भी हड़प कर जाने का ख्याल मन में आ जाता है।
और फिर हम कब दूसरों की नज़रों से नीचे गिर जाते हैं, पता ही नही चलता।
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